यूं गुजर गए कितने साल चुपके-चुपके,
जैसे कल ही मिले थे पहली बार चुपके-चुपके।
कैफियत हवाओं की कह रही है हम से,
गुजारी है बागों से बहार चुपके-चुपके।
वक़्त पर कदम गर उठाये न जायें ,
हो जाता है सुब कुछ बर्वाद चुपके-चुपके।
याद है तेरा नज़रें झुका लेना, और
हांथों पे रखना अपना हाथ चुपके-चुपके।
महफ़िल में तेरी ज़िक्र पे खामोश रहते हैं,
और करते हैं तुमको, हम याद चुपके-छूओके।