मंज़िल यूं बस गयी थी निगाह में,
मोड़ इतने मिलेंगे ये सोचा नहीं था।
मुहब्बत की चाहत थी मेरी भी जायज़,
दर्द इतने मिलेंगे ये सोचा नहीं था।
इब्तिदा मेरी इमारत का, जब इबादत इल्म से हुआ,
मोड़ इतने मिलेंगे ये सोचा नहीं था।
मुहब्बत की चाहत थी मेरी भी जायज़,
दर्द इतने मिलेंगे ये सोचा नहीं था।
इब्तिदा मेरी इमारत का, जब इबादत इल्म से हुआ,
अकबर बनेंगें अख्ज़ मेरे, ये सोचा नहीं था,
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